बाली

 रामायण का बाली


बाल्मीकि के बाली के चरित्र में आत्मस्थापन की प्रवृत्ति सशक्त रूप मे सक्रिय दिखलायी देती है । बडा भाई होने के कारण वह उत्कट रूप में अधिकार प्रिय (Possessive) एक आत्म-सम्मान के प्रति अत्यंत जागरुक है। अपनी शक्ति के प्रति वह किसी की चुनौती बिलकुल सहन नही कर सकता |

मायावी की चुनौती पाकर वह स्थिर न रह सका, सुग्रीव द्वारा राज्य स्वीकार कर लिए जाने की घटना को भी उसने अपने अधिकार के लिए चुनौती समझा और वह सुग्रीव के इस हस्तक्षेप को सहन नहीं कर सका । उसने सुग्रीव को राज्य से बाहर खदेड कर ही दम लिया । राम की प्रेरणा से सुग्रीव द्वारा चुनौती दी जाने पर यह समझते हुए भी कि उस चुनौनी के पीछे कोई रहस्य है, ' वह युद्ध से विरत न रह सका।

बाली के चरित्र का यह दर्प उसके तेजस्वी व्यक्तित्व का एक पक्ष मात्र है, वैसे दूसरा पक्ष अत्यन्त कोमल है। वह अत्यन्त स्नेहशील पिता है । मरते समय उसे अपने पराभव का कोई खेद नही होता, कपट पूर्ण व्यवहार के लिए वह राम को दुत्कारता है, किन्तु अपने पुत्र की भावी दशा का विचार कर वह आत्म-समर्पण कर देता है। अहंकार की उत्तेजना में वह राम के प्रति कटु शब्दों का प्रयोग कर जाता है, किन्तु अपने असहाय पुत्र का विचार कर वह राम से अत्यन्त विनम्र होकर व्यवहार करने लगता है ओर अपने पुत्र को वह अवसर के अनुसार परामर्श दे जाता है। जिससे उसे सुग्रीव के हाथों अपमान न सहना पडे । मरते समय वह सुग्रीव के प्रति प्रेम प्रदर्शित करता है उनके मूल में भी अगंद के हित की चिन्ता निहित है । सुग्रीव के प्रति प्रेम प्रदर्शित करते हुए वह उसे अगंद के सरंक्षण  की याचना करता है । इससे उसकी दूरदर्शिता भी प्रकट होती है जो उसको वात्सल्य की ही परिणति है ।

कुल मिल कर यह कहा जा सकता है कि रामायण मे बाली के व्यक्तित्व मे आत्मस्थापन पर वात्सल्य का पूर्व सामंजस्य है ।

मानस का बाली

रामायण के समान मानस मे भी बाली के चरित्र की घुरी है दर्प, जो अंहकार का ही एक रूप है | दर्प के कारण ही वह अपने पौरुष के समक्ष किसी की चुनौती  अथवा अपने अधिकार में किसी प्रकार का हस्तक्षेप पसन्द नहीं करता। मायावी की ललकार को दर्प  के कारण ही सहन नहीं कर सका और सुग्रीव के राजा बन जाने की बात से भी दर्प के कारण हो अप्रसन्न हो गया, अन्यथा सुग्रीव के साथ उसका सम्बन्ध बहुत स्नेहिल था इस बात को स्वयं सुग्रीव स्वीकार करता है।

मरते समय भी वह अपने पूरे दर्प के साथ राम के द्वारा अपने वध के औचित्य से सबन्ध में प्रश्न करता है।

तुलसीदास ने भक्ति के प्रवेश मे उसके मुख से राम के लिए 'नाथ' गुसाई आदि शब्द का प्रयोग करवाकर उसके दर्प का रंग कुछ हल्का कर दिया है। वाल्मिकी ने इस अवसर पर बालि द्वारा कठोर शब्दों का प्रयोग करवाकर उसके चरित्र को इस विशेषता का निर्वाह किया है । बाली के आत्मसमर्पण के साथ उसके दर्प को भी उन्होने बडा मनोवैज्ञानिक रूप प्रदान किया है। बालि अपने पुत्र अंगद की रक्षा के प्रति चिंतित होकर वात्सल्य की प्रेरणा से दर्पं का त्याग करता है, किन्तु मानस मे राम के ईश्वर के परिज्ञान को उनके दर्प त्याग का कारण बतलाया गया है ।

इस प्रकार तुलसीदास ने बालि के चरित्र को मनोविज्ञान से अध्यात्म की ओर मोड़ दिया है ।

डाक्टर जगदीश शर्मा 





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