राम

 राम

वाल्मीकि के राम

बालकाण्ड के आरम्भ में रामायण की रचना का प्रयोजन राम के रूप मे एक आदर्श महापुरुष के चरित्र का उपस्थापना बतलाया गया है। कदाचित् इस प्रयोजन की गवेषणा रामायण लिखे जाने के उपरान्त किसी पाठक ने की होगी । रामायणकार का प्रयोजन ऐसा नहीं जान पड़ता। राम का जो चरित्र यहाँ देखने में आता है उसे आदर्श कहना बहुत कठिन है। यद्यपि राम के व्यक्तित्व में आदर्श मानव के अनेक गुण पाये जाते हैं, फिर भी राम का समग्र व्यक्तित्व आदर्श नहीं है । उनका चरित्र जटिल और अन्तर्विरोध से परिपूर्ण है । राम एक और परम पितृभक्त दिखलाई देते हैं तो दूसरी ओर पिता के व्यवहार के प्रति असन्तोष भी व्यक्त करते हैं।

 एक ओर भरत पर उनका अगाध विश्वास व्यक्त होता है-- तो दूसरी ओर के भरत के प्रति शंकालु भी जान पड़ते हैं। 

एक ओर सीता को प्राणाधिक प्रेम करते है तो दूसरी ओर उनका भीषण तिरस्कार करते दिखलाई देते है । रावण की अन्त्येष्टि तथा विभीषण के अभिषेक के उपरान्त राम हनुमान को सीता को देखने के लिए भेजते हैं उन्हें लाने का आदेश नहीं देते। सीता द्वारा प्रार्थना कीये जाने पर वे उन्हें अपने पास बुलाते भी हैं तो उन्हें ग्रहण न कर अत्यन्त तिरस्कारपूर्ण शब्दों से उनका स्वागत करते हैं।

यदि उक्त विरोधो को मनोविज्ञान के प्रकाश में देखें तो उसका आधार स्पष्टतः समझ मे आ जाता है।राम के चरित्र की धुरी-उच्चाह है (superego ) |  वंश परम्परा से ही राम के व्यक्तित्व में उच्चाह का सनिवेश था। दशरथ लोकमत का बहुत विचार रखते थे और राम के व्यक्तित्व में भी उसका सक्रिय योग था । राम ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहते थे। जो लोकमत, नैतिक मान्यताओं और परम्परागत आदर्शों के विरुद्ध पडता हो । उनके वन गमन के प्रसंग यह मे बात स्पष्ट परिलक्षित होती है। स्वयं राम एक स्थान पर यह स्वीकार करते देखे जाते हैं कि वे धर्म और परलोक के भय से वन मे चले आए थे, अन्यथा उसके लिये उन्हें कोई बाध्य नहीं कर सकता था ।

रावण वध के उपरान्त सीता को ग्रहण करने मे राम ने जो हिचकिचाहट व्यक्त की थी उसके मूल में भी उनका उच्चाह सक्रिय था। उन्होने सीता से कहा कि अपने पौरुष पर लगे कलंक को मिटाने के लिए ही उन्होंने रावण वध किया था, सीता को पाने की इच्छा से नहीं । सीता के वियोग में तडपते हुए राम का वर्णन जिस पाठक ने पढ़ा है वह राम की इस उक्ति को स्वीकर नहीं कर सकता । सीता के शुद्ध प्रमाणित होने पर स्वयं राम अपनी इस उक्ति को प्रयोजन गर्भित बतलाते हैं । वे प्रमाणित सीता को अपनाते हुए बतलाते हैं कि उन्होंने लोकापवाद शुद्ध से अस्पृष्ट रहने के लिए ही ऐसी बात कही थी। इससे स्पष्ट हो जाता है कि राम का उच्चाई उनके प्रेम से भी अधिक सशक्त था। उसकी प्रबल शक्ति का एक और प्रमाण अयोध्या लौट जाने पर भ्रद से सुनी हुई लोक-निन्दा के आधार पर सीता- परित्याग के रूप मे मिलता है।

उच्चाह आत्मभाव की रक्षा का एक साधन है । उसी का दूसरा रूप औचित्य- करण है । बाली के प्रसंग में राम के व्यक्तित्व का यह रूप स्पष्टतः उभर आता है । बाली द्वारा राम की धार्मिकता को ललकारे जाने पर वे अपने इस कृत्य का औचित्य सिद्ध करने के लिए जो तर्क देते हैं वे राम की धार्मिकता के स्थान पर अपयश प्रक्षालन की चिंता अधिक व्यक्त करते हैं । राम अपने आपको राजा भरत का प्रतिनिधि बतलाते हुए अपने को बाली को दण्ड देने का अधिकारी सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं, किन्तु पूर्व प्रसंगो से ऐसा कोई सबूत नहीं मिलता - वहाँ वे सुग्रीव के शरणागत मात्र जान पड़ते हैं ।" राम ने बाली को छिपकर मारने का औचित्य सिद्ध करने के लिए बाली बध को मृगया का रूप दिया है, किन्तु मृगया का सम्बन्ध दण्ड देने के अधिकार से कैसे माना जा सकता है ? वस्तुत. वहाँ वाल्मीकि ने राम के व्यक्तित्व में निहित आत्मभाव-रक्षा की प्रक्रिया को बड़े कौशल से चित्रित किया है उनके चरित्र पर सफेद रंग पोतने का प्रयत्न नहीं किया है । 

सचाई यह है कि वाल्मीकि  अंकित रामचन्द्र का चरित्र  अतिमात्रा मे जीवंत है - इस चित्र मे सुई चुभोने से मानो रक्तबिन्दु निकलते हैं। यह चरित्र छाया अथवा घूम-विग्रह में परिणत होकर पुस्तक ही के भीतर का आदर्श नहीं रह जाता ।राम की विरक्ति या निवृत्ति वस्तुत संसार की असारता की अनुभूति पर निर्भर नहीं थी, प्रत्युत लोकमत, नैतिक मान्यताओं और परम्परागत आदर्श-- धर्म-पर निर्भर थी। एक हाथ पर चन्दन छिडकने और दूसरे हाथ में तलवार लगने पर जो दोनों को समान समझते हैं, रामचन्द्र उस प्रकार के योगी नहीं थे। उनके चरित्र को समझने के लिए राम के जीवन मूल्य-धर्म को निरन्तर दृष्टिपथ मे रखना चाहिए।

मूल प्रवृत्तियों के बाधित होने पर राम अनेक स्थलों पर भाव-विह्वल दिखलाई देते हैं । वन की आज्ञा मिलने पर वे उसे उस समय बड़े धैर्य के साथ ग्रहण करते हैं, किन्तु माँ के पास पहुंचते-पहुंचते उनके मन का वेग फूट पडता है।

 जब वे सीता के पास यह दु सवांद पहुंचाने गए तो उनका वह सौम्य अविकृत भाव जाता रहा । उनकी मनोवेदना उनके मुख पर स्पष्ट झलक रही थी ।

उनके भ्रातृत्व की अभिव्यक्ति चरम रूप में उस समय होती दिखलायी देती है जब वे लक्ष्मण के शक्ति लगने पर अत्यन्त व्याकुल हो जाते हैं । रामचन्द्र की सेना में लक्ष्मण की उस हृदय भेदी शक्ति को निकालने की किसी की भी हिम्मत नही हुई और उस समय उसके निकाले बिना लक्ष्मण प्राण त्याग कर देते । रामचन्द्र ने अश्रु- पूर्ण नेत्रो से उस शक्ति को निकाल कर फेंक दिया और मुमूषु लक्ष्मण को छाती से लगाकर उनकी शत्रु के हाथ से रक्षा करने लगे। उस समय रावण के बाणों से उनकी पीठ छिन्न भिन्न हो रही थी पर भ्रातृ वत्सल राम ने उस ओर दृष्टिपात तक नहीं किया।

राम की विहलता सबसे अधिक सीता हरण के उपरान्त व्यक्त हुई है। वहां राम का संयम पूरी तरह टूट जाता है। सीता की खोज या उसकी प्राप्ति के मार्ग में जो भी बाघक जान पड़ता है राम का क्रोध उसे भस्म करने पर उतारू हो जाता है। जटायु को सीता का भक्षक समझ कर राम उसके प्राण हर लेने पर उतारू हो जाते हैं । इसी प्रकार समुद्र द्वारा रास्ता न दिए जाने पर राम का प्रचण्ड क्रोध उसे सोख लेने के लिए उन्हें सरसन्धान की प्रेरणा देता है । जब राज्य पाकर सुग्रीव रहम के उपकार का बदला देने की बात भूल जाता है उन वे उसे भी बाली के रास्ते भेजने की धमकी देते हैं । 

इसके विपरित सीता की प्राप्ति में सहायता देने वाले व्यक्ति राम के लिए अत्यन्त प्रिय हो गए । सुग्रीव ने सीता की खोज के लिए जो वचन दिया था उससे प्रेरित होकर राम ने बाली वध के  ओचित्य अनौचित्य का विचार किए बिना उसे मार गिराया और भ्रातृ-विरोधी तथा राज्य लोलुप विभीषण को शरण प्रदान की।अपनी नैतिक प्रकृति के अनुसार उसे शरणागत वत्सल का रूप दे दिया । राम की निस्वार्थ शरणागत वत्सलता के दर्शन ऋषियों को दिए गए अभय दान में होते हैं। यद्यपि वहां भी आसन प्राप्त राज्य से वंचित होने का आक्रोश उपयुक्त आलम्बन की प्रतीक्षा में था, फिर भी उनके क्रोध का आलम्बन राक्षस ही बने इसका श्रेय उनकी शरणागत वत्सलता को है ।

राम के व्यक्तित्व में भावावेग और सवेदनशीलता की प्रचुर मात्रा थी, किन्तु लोकमत सामाजिक मान्यताओं और  परम्परागत आदर्शों के प्रति उनका लगाव  ओर भी प्रबल था। इसलिए जहाँ जहाँ दोनों का संघर्ष हुआ है वहां वहाँ राम ने लोक को प्रधानता देते हुए अपने मनोवेगो का  संवरण किया है चाहे उन्हे भीतर ही भीतर उससे खेद भी हुआ हो। राम के मन का भावावेग उन्मुक्त रूप से वही व्यक्त हुइ है जहाँ उच्चाह लोक भय उसके रास्ते में नहीं आया है।  अतएव राम के चरित्र जो अन्तर्विरोध दृष्टिगत होता है- वह उच्चाह के कारण।राम सीता को अत्यधिक प्रेम करते थे- यह बात वियोग के क्षणों में राम की विह्वलता से स्पष्ट हो जाती है किन्तु रावण वध के उपरात उन्होंने सीता का जो तिरस्कार किया वह केवल उच्चाह की प्रेरणा से लोकापवाद के भय से । राम को यौवराज्याभिषेक मे विघ्न पडने से खेद  हुआ था - यह बात अयोध्याकाण्ड में स्पष्ट परिलक्षित होती है, किन्तु वे निर्वासन के आदेश को सहर्ष स्वीकार कर लेते है-उच्चाह की प्रेरणा से - परम्परागत आदर्शों और सामाजिक मान्यताओं की प्रेरणा से । लंका से लौटने पर सीता की पवित्रता के प्रति सर्वथा आश्वस्त होने पर भी उन्हें घर से निकाल देते हैं- केवल उच्चाह की प्रेरणा से लोकापवाद के भय से ।

वास्तव में वाल्मीकि के राम का चरित्र न हो एकान्तता धार्मिक- आदर्शवादी है ओर न एकान्त व्यावहारिक- लाभान्वेशषी । उनके व्यक्तित्व में इन दोनो पक्षो का संतुलित सामंजस्य दिखलायी देता है । एक ओर वे शुद्धान्त करणवादी और अन्तर्मुखी है तो दूसरी ओर व्यावहारिक और बहिर्मुखी राम के व्यक्तित्व का यह सामंजस्य ही उनके चरित्र के अन्तररोध को जन्म देता है और साथ ही उनके चरित्र को मानवीय रूप भी प्रदान करता है |

तुलसीदास के राम 

वाल्मीकि रामायण की तुलना में मानस के राम का देखने से तो यही बात सिद्ध होती है कि जहाँ वाल्मीकि के राम का चरित्र बहुत ही जीवन्त (यथार्थ ) है वहाँ मानस के राम चरित्र अधिक शीलवान ( आदर्शवादी एव नैतिक) हैं । वाल्मीकि रामायण ( परम्परागत तथा लोक प्रतिष्ठित नैतिक मूल्यों ) से वाध्य होकर ही निर्वासन आदेश स्वीकार करते हैं लोक भय के कारण सीता की अग्नि परीक्षा करते हैं उसी कारण से वे सीता को त्यागते है। भरत के प्रति संदेहशील तथा ईष्यालु है, स्वार्थवश बाली वध करते हैं ओर राजनीतिक प्रयोजन से विभीषण को शरण देते हैं। तुलसीदासजी ने शील अथवा सामाजिक चेतना के समावेश द्वारा राम के चरित्र का चित्र बदल दिया है ।

राम की सामाजिक चेतना का उत्कृष्ट चित्र सर्वप्रथम यौवराज्य का संदेश पाने के अवसर पर दिखलाई देता है। महर्षि वसिष्ठ द्वारा यौवराज का संदेश दिये जाने से पूर्व राम के दाए अंग फड़कते हैं जिन्हे वे भरत आगमन का सूचक समझते है । थोडी देर बाद यौवराज्य का समाचार पाकर भी उन्हें यहीं चिंता होती हैं कि राज्य मिल जाने पर उनमे तथा अन्य भाइयों में जो  अन्तर आ जाएगा वह अनुचित है। राम की यह चिन्ता उनकी सामाजिक मनोवृत्ति--सहयोग और समभाव की प्रतीक है ।

वन-गमन का आदेश सुनते ही उसे सहर्ष स्वीकार कर लेना, मुख पर विकलता का चिह्न तक न आने देना उनकी सामाजिकता का ही परिणाम है। वाल्मीकि के धर्मभीरु राम ने धर्म बन्धन के कारण निर्वासन आदेश स्वीकार किया तथा उसी भावना के  आग्रह से विद्रोही लक्ष्मण को शांत किया, किन्तु जब माता कौशल्या को उन्होंने अपने निर्वासन का सन्देश दिया तब वे व्यग्र हो उठे । वन मे जाकर उन्होंने अपने निर्वासन के प्रति असन्तोष व्यक्त किया और राजा दशरथ की स्त्रेणता की भर्त्सना की । तुलसीदास के राम के आचरण में इस प्रकार की विवशता, खिन्नता तथा पछतावे के दर्शन नहीं होते। इसका कारण ही यह है कि वे अन्तर्मन की प्रेरणा से वन जाते हैं, किसी नैतिक दबाव के कारण नहीं । उनका अन्तर्मन उनका साथ इसलिए देता है कि उनके व्यक्तित्व में सामाजिकता - सामाजिक हित में कार्य करने की प्रवृत्ति का प्रचुर समावेश है । वन में सुमंत को अयोध्या के लिए विदा करने समय लक्ष्मण द्वारा कुछ कड़वी बातें कहने पर वे संकोच का अनुभव करते हैं और शपथ दिलाकर उससे अनुरोध करते हैं कि पिता को इस बात की सूचना न दें ।

चित्रकूट प्रसंग में राम की यही विशेषता और भी अधिक उभरकर पाठकों के समक्ष आती है । वहीं मानस के राम वाल्मीकि के राम के समान नहीं लौटने के आग्रह पर अटल नहीं रहते । भरत के प्रति ईर्ष्या की बात तो दूर रही, वे भरत के कहने पर पितृ आदेश की अवहेलना के लिए भी तैयार हो जाते हैं । परानुवर्तन की यह प्रधानता उनकी समाज चेतना का ही परिणाम है ।

जनकपुर की यज्ञ भूमि में बालको के साथ उनका स्नेहपूर्ण एवं आत्मीयतामय व्यवहार, गुह के साथ सखाभाव, शबरी पर कृपा आदि प्रसंग भी उनको सामाजिक चेतना का ही निदर्शन करते हैं।

उनके व्यक्तित्व में सामाजिक तत्व वात्सल्य के योग से और अधिक निखर उठा है। राम के प्रधान कार्य इसी मूलप्रवृत्ति से चरितार्थ हुए हैं। विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा, धनुष भंग द्वारा जनक का संताप-हरण, देवकार्य के लिए बन-गमन, राक्षम वध की प्रतिज्ञा रावण वध आदि सभी कार्य इसी मूलप्रवृत्ति से संचालित हुए हैं। दुर्बलों की रक्षा भावना वात्सल्य प्रवृत्ति के परिवर्तन के अन्तर्गत ही आती है ।

राम की सामाजिकता विनम्रता के संयोग से बड़ी आकर्षक बन गई है। परशुराम ने बिसगंत व्यवहार के कारण राम को मन ही मन हंसी अवश्य आती है, किन्तु वे प्रकट रूप से परशुराम का अपमान नहीं करते । उन्हें वे सम्मानसूचक से ही संबोधित करते हैं और अपने आपको उनकी तुलना में सब छोटा मानते हैं । वन गमन के समय वे सीता से घर ही रहने का अनुरोध करते हुए सास की सेवा सम्बन्धी वर्त्तव्य पर बल देते है। 

 इसी प्रकार लक्ष्मण को समझाते हुए भी परिवार और प्रजाजन के परिपालन का विचार उनके समक्ष रखने है।

 निर्वासन के क्षणो में परिवार का ही नहीं प्रजाजनो के परिपालन सम्बन्धी दायित्व का निर्वाह राम के चरित्र की सामाजिक शील का प्रबल प्रमाण है ।

मानस से पूर्व रामकाव्य में कहीं भी उनकी सामाजिकता इस रूप में व्यक्त नहीं हो पाई है। वाल्मीकि मे भी राम सीता को घर ही छोड़ना चाहते हैं किन्तु वन की असुविधाओं के विचार से ओर लक्ष्मण का छोड़ना चाहते है भरत पर निगरानी रखने के लिए । तुलसीदास जी ने इस प्रसंग का मूलभूत प्रयोजन बदलकर राम के व्यक्तित्व को असाधारण स्नेह विश्वान और कर्तव्य भावना से युक्त बना दिया है। राम की इन्हीं विशेषताओं का आधार है उनकी सामाजिकता।


राम की सामाजिकता का एक और रुप मानस मे दृष्टि गोचर होता है । मानसाकार ने राम को व्यथा के क्षणों में भी समाज विरोधी व्यवहार करते हुए नहीं दिखाया है। सीता हरण के उपरांत उनकी उद्विग्नता नारी जाति ओर उनके प्रति कटूक्तियो के रूप में ही व्यक्त हुई है। वाल्मीकि रामायण के समान वहाँ वे जगत के विनाश को बात वे नहीं सोचते । समुद्र द्वारा मार्ग न दिये जानेपर भी वे एकाएक क्रुद्ध नहीं हो उठते । पहले उसे सत्याग्रह द्वारा प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं, जब वह यो नहीं मानता तभी वे उसे सोख लेने की बात सोचते हैं। और तो और रावण पर आक्रमण करने से पूर्व भी ये उसे समझाने और युद्ध टालने का प्रयत्न करते है ।

इस सामाजिकता के बावजूद राम के व्यक्तित्व में आक्रोश के दर्शन होते हैं किन्तु इस योग का सम्बन्ध सामाजिक न्याय भावना से है । वत्सला (दुर्बलो की रक्षा भावना ) मे वाघा उपस्थित होने से क्रोध को जन्म मिलता है। राम में इन प्रकार का अमर्ष हमें दिखलायी देता है जो सामाजिक हित का सम्पादन करता है और न्याय की रक्षा के लिए करता है। इस न्याय भावना के लिए जिस उत्साह की आवश्यकता है वह भी राम के चरित्र में दृष्टिगोचर होता है। राम के आत्प्रमकाशन भी उन्ही अवसरो पर व्यक्त हुआ है जब वे सामाजिक हित लिए उत्साह प्रकट करते हैं । राक्षस वध की प्रतिज्ञा इस बात का बहुत अच्छा उदाहरण है। यहाँ उनकी प्रतिज्ञा मे उनका आत्मविश्वास मिश्रित उत्साह प्रकट हो रहा है जो सामाजिकता का ही परिणाम है।

इस प्रकार राम की वीरता इन्ही तीन प्रवृत्तियों वात्सल्य (दुर्बलो की रक्षा-भावना ), आततायियों के प्रति क्रोध तथा उसके उन्मूलन के लिए उत्साह (आत्म प्रकाशन) की ही अभिव्यक्ति है । उनके इस शौर्य के साथ ही उनके पत्नी प्रेम की अन्तसलिला बहती है। काम- प्रवृत्ति गौण रूप से उनके शोर्य को उद्दीप्त करती है। धनुष यज्ञ के अवसर पर राम का जो पराक्रम व्यवत होता है, उसमे सीता के प्रति उनका आकर्षण भी सहायता देता है । जब सीताजी प्रेम-पन ठानकर रामचन्द्रजी की ओर देखती हैं तो वे बड़े आश्वस्त भाव से धनुष की ओर देखते हैं।इससे स्पष्ट है कि धनुर्भंग के पीछे सीता के प्रति राम का प्रेम भी एक प्रेरक का काम कर रहा था।

मानस के उत्तरार्ध की प्रमुख घटना-रावणवध के साथ राम का सीता- प्रेम अविच्छिन्य रूप से जुड़ा हुआ है, लेकिन राम की चेष्टायो की प्रमुख प्रेरणा दुर्बलों के प्रति उनका वात्सल्य है। सीता के प्रति उनका प्रेम उन्हें गौण रूप से प्रेरित करता है ।

मानस के राम का पत्नी प्रेम भी वाल्मीकि के राम के पत्नी प्रेम से भिन्न कोटि का है । मानस के राम सीता के वियोग मे बुरी तरह तडपते दिखलायी देते है, किन्तु रावणवध के उपरान्त सीता से मिलने पर उनके साथ सदव्यवहार नहीं करते । यहाँ आत्म प्रतिष्ठा पत्नी प्रेम से बाजी मार ले जाती है। मानस के राम सीता के विरह में उतने तडपते नहीं, बड़े सांकेतिक ढंग से अपने प्रेम का संदेश सीता के पास भेजते है । रावणवध के उपरान्त सीता से मिलने पर दुर्वाद अवश्य करते हैं, किन्तु उनके वे दुर्वाद प्रयोजनगर्भित होने से सीताके प्रति उनकी प्रेम- भावना को दवा नहीं पाते । मानस में सीता के प्रति राम का प्रेम वाल्मीकि के समान न तो प्रारम्भ में उग्र है और न अन्त मे  आत्मप्रतिष्ठा की भावना से कुंठित ।मानस के रामाद्योपात समान भाव से सीता को प्रेम करते दिखायी देते हैं। इस प्रकार प्रेम के क्षेत्र में मानस के राम का चरित्र उद्दात है।


वस्तुन यह उदात्तना मानस के राम की विशिष्टता है जो न बाल्मीकि रामायण मे है न अध्यात्म रामायण में । वाल्मीकि के राम का चरित्र अत्यन्त लौकिक है ओर  अध्यात्म रामायण मे  अत्यतिक रूप से अलौकिक । मानस के राम इन दोनो के मध्यवर्ती है। उन भगवद्रूपता और मानवसुलभता की समन्वित  अभिव्यकि उदात मानवता के रूप में हुई है ।

डाक्टर जगदीश शर्मा 



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