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शांत पुष्ट भक्ति रस

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  शांत पुष्ट भक्ति रस मानस मे एक स्थान पर शांत पुष्ट भक्तिरस को बडी सुन्दर योजना दिललाई देती है । राम जब बाल्मीकि से नये निवास स्थान के सम्बन्ध में निर्देश मांगते है उस समय ईश्वर निवास के सम्बंध में वाल्मीकि जो उतर देते हैं वह राम भाव समन्चित ईश्वरानुरक्ति से पूर्ण होने के कारण शांत समन्वित भक्ति रस का बहुत सुन्दर उदाहरण बन गया है। वाल्मीकि रामायण में राम भरद्वाज से यही प्रश्न पूछते हैं, किन्तु वहाँ भरद्वाज सहज भाव में चित्रकूट- निवास का परामर्श देते हैं। मानसकार  ने  वैदग्ध्यपूर्वक  इस प्रसंग को शांत समन्वित भक्तिरस से आप्लावित कर दिया है। मानस में भक्तिरस को व्यापकता और विविध रूपता बहुत अधिक है। वह अनेक स्थलों पर रती, वात्सल्य, भ्रातत्व, भय, आदि लौकिक मानोभावों से पुष्ट हुआ है और कहीं-कहीं लौकिक मनोभावना से विरोध भी हुआ है । भावभास से लेकर रस परिपाक  तक उसके अनेक स्तर मानस में दिखाई देते हैं। मानस में भक्ति रस की इस व्यापकता को देखते हुए इस क्षेत्र में वाल्मीकि रामायण की उससे कोई समता दिखलाई नहीं देती क्योंकि वहाँ भक्ति भाव-स्तर से ऊपर नहीं पहुँच सकी है। डाक्टर जगदीश शर्मा 

भयमूलक भक्ति

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  भयमूलक भक्ति मानस मे भयमूलक भक्ति के दर्शन भी होते है । जयंत और मंदोदरी की भक्ति इस प्रकार की है। भक्ति में अनुरक्ति मूलक रस है और इसलिये भयानक से उसका सहज विरोध है । जयंत प्रसंग में भयानक की प्रबलता से भक्तिरस दब गया। इसके विपरित मंदोदरी की भक्ति में भय का अंश क्षीण और राम के ईश्वरत्व की चेतना प्रबल होने से राम के प्रति निरंतर अनुरक्ति बनी रही है, फिर भी भक्ति के रूप में मदद की प्रतिनायक  अनुरक्ति (मदोदरी के लिये राम प्रतिनायक हैं। ) व्यक्त होने से उनकी भक्ति रसाभास के रूप में प्रकट हुई है। मंदोदरी की प्रति नायक निष्टा रावणवध के उपरान्त उसके विलाप में चरम सीमा पर पहुंची हुई प्रतीत होती है। राम के प्रति शत्रु पत्नी की यह अनुरक्ति यथार्थ प्रतीत नहीं होती। इसलिये यह भावाभास के स्तर तक ही पहुंच पायी है। इसी प्रकार रावण की रामभक्त भी भय के भाव से दब जाने के कारण रस रूप में व्यक्त नहीं हो सकी है। डाक्टर जगदीश शर्मा

दास्य भाव भक्ति रस

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दास्य भाव मूलक भक्ति रस दास्य भाव के सम्बन्ध से भी मानसकार ने भक्तिरसपूर्ण प्रसंगों की सृष्टि की है। लक्ष्मण, भरत, सुग्रीव, अंगद ,हनुमान और विभीषण की भक्ति भावना प्राय  दास्य भक्ति के रूप में व्यक्त हुई है। इनमें से भरत और लक्ष्मण की भक्ति भावना भ्रातस्नेह से अन्तर मिश्रित है ।जब की अन्तिम चारों व्यक्तियों शुद्ध दास्य भक्ति है। प्रश्न यह है क्या यह दास्य भक्ति रस कोटि में आ सकती है? रसपरिपाक की स्थिति तक पहुँच सकी है ?  भरत और लक्ष्मण की  भातृत्वमिश्रिति भक्ति को शुद्ध भक्ति के अन्तर्गत  मानना उचित प्रतीत नहीं होता।   यह मानना अधिक उचित होगा कि उक्त प्रसंग में भ्रातत्व का परिवर्तन भक्ति में हुआ है। अतः यहां भ्रातत्व पुष्ट भक्ति रस माना जाता है। राम के प्रति भरत का अनुराग इसी प्रकार भ्रातत्व मिश्रित भक्ति का रूप ले लेता है। ये प्राय राम को स्वामी और अपने आप को  उनका सेवक मानते हुए एक स्थान पर राम के लिये दीनबंधु आदि शब्द का प्रयोग करते हैं। जिससे ऐश्वर्य बोध के साथ राम की अलौकिकता  के प्रति उनकी आस्था व्यक्त होती है, लेकिन सन्दर्भ की समग्रता में भ्रातत्व की अभिव्यक्ति अक्षुण्ण रहने से 

वात्सल्य मूलक भक्तिरस

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 वात्सल्य मूलक भक्तिरस तुलसीदास जी ने वात्सल्य का उपयोग भी भक्तिरस की पुष्टि के लिये किया है। दशरथ का वात्सल्य शुद्ध वात्सल्य नहीं है, वह भक्तिरस के साथ मिश्रित है और कुछ स्थलों पर तो वह भक्ति का अंग ही बन गया है। राजा दशरथ राम को विश्वामित्र को सौंपने मे हिचकिचाहट प्रकट करते है विश्वामित्र उनके इन पुत्र प्रेम  को भक्ति के रूप में देखते है। इस प्रसंग में  वात्सल्य और भक्ति परस्पर अंतर्लीन हो गये हैं । दशरथ की मृत्यु के अवसर पर भी लेखक ने जो भाव व्यञ्जना की है उसमे भी वात्सल्य और भक्ति इसी प्रकार अन्तर्मिश्रित  हैं । 'राम-राम' कहना एक और मृत्यु समय राम नाम उचारण की और संकेत करता है तो दूसरी और पुत्र वियोग में तपते हुए दशरथ के द्वारा पुत्र स्मरण सूचित करता है । युग्म-रूप मे रामानामोच्चारण मृत्यु  समय के ईश्वर चिंतन के रूप में प्रतीत होता है और एक बार राम कहना पुत्र स्मरण की ओर से संकेत करता जान पडता है। राजा दशरथ का पुत्र स्नेह उनकी भक्ति का ही अंग था ऐसा उल्लेख मानस मे एक स्थान पर मिलता अवश्य है ।  किन्तु प्रसंग की समग्रता में राजा दशरथ का पुत्र-स्मरण एकाततः भक्ति-का अंग नहीं मा

अनुरक्तिमूलक भक्ति रस

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  अनुरक्तिमूलक भक्ति रस आश्चर्य के समान रति से भी मानह मे भक्ति रस का पोषण हुआ है और इसके लिये तुलसीदासजी ने प्रायः राम के सौन्दर्य अतिशय का अवलम्व ग्रहण किया है । मानसाकार ने राम के अलौकिक सौन्दर्य का उपयोग उनके प्रति मनुष्यों की ही नहीं, देवताओं की भक्ति के उद्बोधन के लिये भी किया है। उन्होंने राम के अद्भुत रूप पर ब्रह्मा, विष्णु और महेश को भी मुग्ध दिखलाया है।  परम विरागी राजा जनक के मन में भी राम के सौन्दर्य को देखकर अनुराग उत्पन्न हो जाता।  इतना ही नहीं, प्रतिपक्षियों तक को मानसकार ने राम के सौन्दर्य पर मुग्ध दिखलाया है । कट्टर क्षत्रिय-विरोधी परशुराम भी राम को देखते ही रह जाते हैं । खर-दूषण आदि राक्षस भी, जो राम पर आक्रमण करने आते हैं, उन्हें देखते ही रह जाते हैं, किन्तु वह राम के सौन्दर्य के प्रति राक्षसों को यह अनुरक्ति परिस्थिति एवं  अवसर के प्रतिकूल होने के कारण  आरोपित सी प्रतीत होती है और इसलिये वहां राक्षसों की भक्ति रस स्तर तक न पहुंचकर भावामास के स्तर तक ही रह जाती है, किंतु अन्य दो प्रसंगों में उनके रूप के अलौकिक प्रभाव को व्यंजना के माध्यम से कवि ने रति पुष्ट भक्तिरस क

मानस में बहुरंगी भक्ति रस

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  मानस में बहुरंगी भक्ति रस मानसकार ने भक्ति को अपने काव्य का आधार बनाया है और इसलिये उसे रस दशा तक पहुँचाने की पूरी चेष्टा की है। इस चेष्टा मे उन्होने एक और भक्ति को उसके बहुमुखी रूप मे ग्रहण किया है तो दूसरी ओर उसका लौकिक भावों के साथ अधिकाधिक साम्य करने का प्रयत्न किया है।    अद्भुतमूलक भक्ति रस मानस मे भक्ति की बहुमुखी छटा देखने को मिलती है। सती-मोह के साथ ही भक्ति के अद्भुत रूप का बीज पड जाता है। इसी अद्भुतमूलक भक्ति की अभिव्यक्ति कौशल्या व्यामोह के प्रसंग में की गई है। खर दूषण वध और कागभुशुण्डि के आत्मचरितवर्णन के अवसर पर भी भक्ति का  अद्भुतमूलक पक्ष ही सामने आता है। उपर्युक्त प्रसंगों मे राम के व्यक्तित्व की अद्भुतता से अभिभूत कर उनके ईश्वरत्व की प्रतिष्ठा कवि का उद्देश्य रहा है ,पर श्रद्धालु पाठक उस से अभिभूत होकर जब राम की अद्भुतता पर मुग्ध होने लगते है तब कवि की भक्ति भावना से तादात्म्य की सिद्धि के साथ रामभक्ति का साधारणीकरण हो जाने से भक्तिभाव रस रूप मे निष्पत हो जाती है। तुलसीदास जी के अनेक समीक्षको ने इन प्रसंगों को अद्भुत रस के अन्तर्गत माना है. किन्तु वास्तविकता यह है क

राम

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  राम वाल्मीकि के राम बालकाण्ड के आरम्भ में रामायण की रचना का प्रयोजन राम के रूप मे एक आदर्श महापुरुष के चरित्र का उपस्थापना बतलाया गया है। कदाचित् इस प्रयोजन की गवेषणा रामायण लिखे जाने के उपरान्त किसी पाठक ने की होगी । रामायणकार का प्रयोजन ऐसा नहीं जान पड़ता। राम का जो चरित्र यहाँ देखने में आता है उसे आदर्श कहना बहुत कठिन है। यद्यपि राम के व्यक्तित्व में आदर्श मानव के अनेक गुण पाये जाते हैं, फिर भी राम का समग्र व्यक्तित्व आदर्श नहीं है । उनका चरित्र जटिल और अन्तर्विरोध से परिपूर्ण है । राम एक और परम पितृभक्त दिखलाई देते हैं तो दूसरी ओर पिता के व्यवहार के प्रति असन्तोष भी व्यक्त करते हैं।  एक ओर भरत पर उनका अगाध विश्वास व्यक्त होता है-- तो दूसरी ओर के भरत के प्रति शंकालु भी जान पड़ते हैं।  एक ओर सीता को प्राणाधिक प्रेम करते है तो दूसरी ओर उनका भीषण तिरस्कार करते दिखलाई देते है । रावण की अन्त्येष्टि तथा विभीषण के अभिषेक के उपरान्त राम हनुमान को सीता को देखने के लिए भेजते हैं उन्हें लाने का आदेश नहीं देते। सीता द्वारा प्रार्थना कीये जाने पर वे उन्हें अपने पास बुलाते भी हैं तो उन्हें ग्रह